२. - अल्पानामपि वस्तूनां संहतिः कार्यसाधिका _ सारांश

 

पाठ: अल्प वस्तुओं की एकता से कार्यसिद्धि

प्रस्तावना:

कुछ मित्र विद्यालय के ग्रीष्मावकाश में उत्तराखंड की देवभूमि के दर्शनों हेतु गए। वह समय वर्षा ऋतु का प्रारंभ था। सभी गौरीकुंड नामक स्थान पहुँचे। जब वे श्रीकेदारनाथ की ओर बढ़ रहे थे, तभी तेज़ वर्षा शुरू हो गई, और चारों ओर अंधकार छा गया। नदी का पुल टूट गया और पहाड़ खिसकने लगा। सभी ज़ोर-ज़ोर से रोते हुए भगवान से प्रार्थना करने लगे — "हे भगवान! हमारी रक्षा करो।"

 

नायक सुधीर का संवाद:

सुधीर ने सभी को धैर्य बंधाते हुए कहा: "अरे मित्रों! इस विपत्ति के समय हम धैर्य रखकर किसी उपाय की सोच करें।" दिनेश बोला: "भाई! मृत्यु निकट है, उपाय कैसे सोचें?" सुधीर बोला: "मित्र! चिंता मत करो। जब वर्षा शांत होगी और मौसम साफ़ होगा, तब हम मिलकर पुल और रास्ते का निर्माण करके अपने लक्ष्य की ओर बढ़ेंगे।" सुरेश ने संदेह जताते हुए कहा: "क्या हम यह कठिन काम कर पाएँगे?" सुधीर ने आत्मविश्वास के साथ उत्तर दिया: "मित्रों! आत्मविश्वास की शक्ति से असंभव कार्य भी संभव हो सकते हैं। इससे हमारी रक्षा और लक्ष्य सिद्ध दोनों होंगे।

 

कथा का हिन्दी अनुवाद (संक्षेप में)

आरंभिक दृश्य – उत्तराखंड यात्रा और आपदा

कुछ विद्यार्थी गर्मी की छुट्टियों में उत्तराखंड के पुण्यस्थलों के दर्शन के लिए गए। वे गौरीकुंड पहुँचे और श्रीकेदारनाथ की ओर बढ़े ही थे कि अचानक मूसलधार वर्षा शुरू हो गई। अंधकार फैल गया, पुल टूट गया और भूस्खलन हो गया। सभी भयभीत होकर भगवान से प्रार्थना करने लगे – “हे भगवान! हमारी रक्षा करो।”

 

सुधीर नामक नायक का धैर्य

सुधीर नामक छात्र ने सभी को संयमित करते हुए कहा: "मित्रो! इस विपत्ति में हम मिलकर कोई उपाय सोचें और धैर्य रखें। जब मौसम साफ़ होगा तो हम मिलकर रास्ता बनाएँगे और लक्ष्य की ओर बढ़ेंगे।" उसका आत्मविश्वास देखकर अन्य छात्र भी आश्वस्त हुए।

 

चित्रग्रीव और कपोतों की कथा (हितोपदेश से ली गई)

एक विशाल शाल्मली वृक्ष पर कई पक्षी रहते थे। एक दिन एक शिकारी चावल के दाने बिखेरकर वहाँ जाल फैलाकर छिप गया। उसी समय कपोतराज चित्रग्रीव अपने साथियों के साथ उड़ते हुए वहाँ पहुँचा। कुछ कपोते लालच में आकर बिना विचार किए नीचे उतर गए और चावल खाने लगे। चित्रग्रीव ने उन्हें समझाया कि यह स्थल संदिग्ध है, लेकिन किसी ने उसकी बात नहीं मानी।

सभी कपोते जाल में फँस गए। तब चित्रग्रीव ने कहा — "अब हमें एक उपाय सोचना चाहिए। विपत्ति में धैर्य ही वीरता है। चलो, हम सब एक साथ मिलकर उड़ें और जाल को ले जाएँ।" सबने मिलकर प्रयास किया और जाल उठाकर उड़ गए।

 

हिरण्यक मूषकराज की मदद

चित्रग्रीव ने सोचा — “हमारा मित्र हिरण्यक मूषकराज हमारे बंधन काट सकता है।” सभी कपोते गण्डकी नदी के किनारे स्थित चित्रवन में हिरण्यक के पास पहुँचे। हिरण्यक कपोतों को देखकर पहले डर गया, लेकिन फिर चित्रग्रीव को पहचानकर बहुत प्रसन्न हुआ।

चित्रग्रीव ने कहा — "पहले मेरे साथियों के बंधन काटो, फिर मेरा।" हिरण्यक ने उसकी वात्सल्यपूर्ण बात सुनकर कहा — "मित्र! तुम नायक बनने योग्य हो।" और उसने सबके बंधन काट दिए।

सभी पक्षी फिर से उड़ चले और चित्रग्रीव की प्रशंसा करते हुए बोले — "आपके नीति ज्ञान और नेतृत्व से हम सब सुरक्षित हुए।"

 

कथा से सीख और प्रेरणा

नायक ने कहा — "जब पक्षी एकता से अपना रक्षण कर सकते हैं, तो हम क्यों नहीं? आइए मिलकर पुल बनाएँ और दूसरों की भी रक्षा करें।"

सभी छात्र प्रेरित होकर भय, संदेह और शोक को छोड़कर पुल निर्माण में जुट गए। भगीरथ प्रयासों से उन्होंने पुल बनाया और खुद के साथ-साथ दूसरों का भी जीवन बचाया।

 

 

ग्रीष्मावकाश यात्रा और प्रारंभिक विपत्ति

कानिचन मित्राणि विद्यालयस्य ग्रीष्मावकाशे पुण्यक्षेत्रदर्शनाय देवभूमिम् उत्तराखण्डम् अगच्छन्।

कुछ मित्र विद्यालय के ग्रीष्मावकाश में पुण्य स्थलों के दर्शन हेतु देवभूमि उत्तराखंड गए।

तदानीं वर्षारम्भकाल: आसीत्।                    

उस समय वर्षा ऋतु का प्रारंभ था।

सर्वेऽपि गौरीकुण्डनामकं स्थानं प्राप्तवन्तः।     

सभी गौरीकुंड नामक स्थान पर पहुँचे।

यदा ते श्रीकेदारक्षेत्रम् आरोहन्तः आसन् तदा लक्ष्यप्राप्तेः पूर्वं वेगेन वृष्टिः आरब्धा।      

जब वे श्रीकेदारनाथ क्षेत्र की ओर चढ़ रहे थे, तभी लक्ष्य तक पहुँचने से पहले ही तेज़ बारिश शुरू हो गई।

सहसा सर्वत्र अन्धकारः प्रसृतः ।        

अचानक चारों ओर अंधकार फैल गया।

नद्या: तीव्रजलवेगेन सेतुः भग्नः।        

नदी के तीव्र जल प्रवाह से पुल टूट गया।

पर्वतस्खलनं सञ्जातम्।        

भूस्खलन (पर्वत खिसकना) हो गया।

सर्वेऽपि उच्चस्वरेण अक्रन्दन ईश्वरं प्रार्थयन्त च 'हे भगवन्! रक्ष अस्मान् रक्ष' इति।      

सभी ज़ोर-ज़ोर से रोने लगे और भगवान से प्रार्थना करने लगे — “हे भगवान! हमारी रक्षा करो, हमारी रक्षा करो।”

🎤 नायक सुधीर का धैर्यपूर्ण मार्गदर्शन

नायक: सुधीरः सर्वान् सांत्वयन् प्रेरयन् च अवदत् -    

नायक सुधीर सभी को सांत्वना देते और प्रेरित करते हुए बोले —

अयि भो: मित्राणि ! अस्मिन् विपत्काले वयं धैर्यम् अवलम्ब्य कमपि उपायं चिन्तयामः।          

अरे मित्रों! इस विपत्ति के समय हम धैर्य रखकर कोई उपाय सोचें।”

दिनेश: - (सविषादम्) अरे भ्रातः ! कि वदसि? अस्माकं मृत्यु: एवं सन्निकटे अस्ति। एवं चेत् कथम उपाय: चिन्तनीयः ?    

दिनेश: (चिंतित होकर) “अरे भाई! क्या कह रहे हो? हमारी मृत्यु इतनी समीप है। ऐसे में क्या उपाय सोचना?”

नायक: - मित्र ! विषादं मा कुरु।         

नायक: “मित्र! चिंता मत करो।”

यदा वृष्टिः शान्ता, वातावरणं च स्वच्छं भविष्यति तदा वयं सम्भूय सेतुं, मार्गं च निर्माय पुनः स्वलक्ष्यं प्रति गमिष्यामः। जब वर्षा शांत होगी और वातावरण साफ़ होगा, तब हम मिलकर पुल और मार्ग का निर्माण करके अपने लक्ष्य की ओर फिर से चलेंगे।

सुरेश: - एतस्यां स्थितौ वयं किमेतत् अत्यन्तं दुःसाध्यम्, असम्भवं च कार्यं कर्तुं शक्नुमः ?

सुरेश: “इस स्थिति में क्या हम इतना कठिन और असंभव कार्य कर सकते हैं?”

नायक: - प्रियमित्राणि! वयम् आत्मविश्वासबलेन इदम् असम्भवम् अपि कार्यं सम्भूय अवश्यं साधयितुं शक्नुम: । नायक: “प्रिय मित्रों! हम आत्मविश्वास की शक्ति से इस असंभव कार्य को भी मिलकर अवश्य पूरा कर सकते हैं।”

तेन अस्माकं लक्ष्यप्राप्तिः प्राणरक्षा चापि भविष्यति।

इससे हमारा लक्ष्य भी प्राप्त होगा और जीवन की रक्षा भी होगी।

 

चित्रग्रीव की नीति कथा

अस्ति गोदावरीतीरे एको विशाल: शाल्मलीतरु:

गोदावरी नदी के किनारे एक विशाल शाल्मली वृक्ष था।

तत्र प्रतिदिनं दूरदेशात् पक्षिणः आगत्य निवसन्ति स्म।

उस पर रोज दूर-दूर से पक्षी आकर निवास करते थे।

अथ कदाचित् तत्र कश्चिद् व्याधस्तण्डुलकणान् विकीर्य जालं विस्तीर्य च प्रच्छन्नो भूत्वा स्थितः।

एक दिन वहाँ एक शिकारी आया जिसने चावल के दाने बिखेरे और जाल फैलाकर छिप गया।

तस्मिन्नेव काले चित्रग्रीवनामा कपोतराजः सपरिवारः आकाशमार्गे गच्छति स्म।

इसी समय चित्रग्रीव नामक कपोतराज अपने परिवार सहित आकाशमार्ग से उड़ रहा था।

केचन कपोताः वनमध्ये तण्डुलकणान् अवलोक्य लोभाकृष्टाः अभवन्।

कुछ कपोते वन में चावल के दाने देखकर लालच में फँस गए।

ततो चित्रग्रीवः तण्डुलकणलुब्धान् कपोतान् अवदत् – “कुतोऽत्र निर्जने वने तण्डुलकणानां सम्भवः तद् निरूप्यताम्। तब चित्रग्रीव ने चावल के दानों के लोभ में पड़े कपोतों से कहा — “इस निर्जन वन में चावल कहां से आए? इसका विचार करो।”

कश्चिद् व्याधोऽत्र भवेत्।

शायद यहां कोई शिकारी हो।

सर्वथा अविचारितं कर्म न कर्तव्यम्।

बिलकुल भी बिना सोचे कोई कार्य नहीं करना चाहिए।

एतद्वचनं श्रुत्वा कश्चित् कपोतः सदर्पम् अवदत् – “आ: किमर्थम् एवमुच्यते?

यह सुनकर एक घमंडी कपोत बोला — “अरे! क्यों ऐसा कहा जा रहा है?”

वृद्धानां वचनं ग्राह्यमापत्काले ह्युपस्थिते।

सर्वत्रैवं विचारे तु भोजनेऽप्यप्रवर्तनम् ॥

(श्लोक अर्थ): आपत्ति के समय वृद्धों की बातों को मानना चाहिए। हर जगह विचार करते रहना भी भोजन जैसे जरूरी कार्यों में बाधा बन जाता है।

तस्य वचनं श्रुत्वा चित्रग्रीवस्य च अवज्ञां कृत्वा सर्वे कपोताः भूमौ अवतीर्य तण्डुलकणान् भोक्तं प्रवृत्ताः।

उस कपोत की बात सुनकर, चित्रग्रीव की अवहेलना करते हुए, सारे कपोते भूमि पर उतरकर चावल खाने लगे।

अनन्तरं ते सर्वे तेन जालेन बद्धाः अभवन्।

फिर वे सब शिकारी के जाल में फँस गए।

 

कपोतों की विपत्ति और चित्रग्रीव की नीति

ततो यस्य वचनात् कपोतास्तत्र बद्धास्तं सर्वे तिरस्कुर्वन्ति स्म।

जिस कपोत के वचन के कारण सब जाल में फँसे थे, उसका सभी तिरस्कार करने लगे।

इदं दृष्टवा चित्रग्रीवः अवदत् – "अयम् अस्य दोषो न। अनागतविपत्तिं को वा ज्ञातुं समर्थः?"

यह देखकर चित्रग्रीव ने कहा — “यह उसका दोष नहीं है। कौन अपूर्ण भविष्य को जान सकता है?”

"अतोऽस्मिन् विपत्काले अस्माभिः अस्य तिरस्कारम् अकृत्वा कश्चन उपायश्चिन्तनीयः।"

इसलिए इस विपत्ति के समय हमें उसका तिरस्कार किए बिना कोई उपाय सोचना चाहिए।”

"यतोहि विपत्काले विस्मयः एव कापुरुषलक्षणम्।"

क्योंकि विपत्ति में घबराना ही कायरता है।”

"सत्पुरुषाणां लक्षणं तुविपदि धैर्यमथाभ्युदये क्षमा..."

सज्जनों का लक्षण हैविपत्ति में धैर्य, समृद्धि में क्षमा...”

(यहाँ प्रसिद्ध नीति श्लोक प्रस्तुत है जिसका हिन्दी भावार्थ अगले भाग में विस्तार से किया जा सकता है)

अतोऽधुना अस्माभिः धैर्यमवलम्ब्य प्रतिकारश्चिन्त्यताम्।

अब हमें धैर्य रखकर समाधान सोचना चाहिए।”

प्रियमित्राणि! लघूनाम् अपि वस्तूनां संहतिः कार्यसाधिका भवति इति नीतिवचनं लोकसिद्धम्।

मित्रों! छोटे-छोटे तत्वों की एकता से भी कार्य सिद्ध होता हैयह नीति-वाक्य प्रसिद्ध है।”

अतः अस्माभिः सर्वैः एकचित्तीभूय जालमादाय उड्डीयताम्।"

इसलिए हम सब एक मन होकर जाल उठाकर उड़ चलें।”

एवं विचार्य सर्वे पक्षिणः जालमादाय उत्पतिताः।

ऐसा विचार कर सभी पक्षी जाल लेकर उड़ गए।

🐭 हिरण्यक मूषकराज से सहायता

अनन्तरं स व्याध: सुदूरात् जालापहारकान् तान् अवलोक्य अधावत्।

उस शिकारी ने दूर से जाल उड़ाकर ले जाते पक्षियों को देखकर दौड़ना शुरू किया।

परं तस्य दृष्टिपथात् दूरं गतेषु पक्षिषु स व्याधो निवृत्तः।

लेकिन जब पक्षी उसकी दृष्टि से बहुत दूर चले गए, वह लौट गया।

अथ व्याधं निवृत्तं दृष्टवा कपोता: उक्तवन्तः – “स्वामिन्! किमिदानीं कर्तुम् उचितम्?"

फिर कपोतों ने कहा — “राजन्! अब हमें क्या करना चाहिए?”

चित्रग्रीव उवाच – "प्रियकपोताः! अस्माकं मित्रं हिरण्यको नाम मूषकराजः..."

चित्रग्रीव बोला — “प्रिय कपोतों! हमारा मित्र हिरण्यक नामक मूषकराज…”

(यहाँ से कथा हिरण्यक के गण्डकीतीर वाले चित्रवृक्ष निवास तक बढ़ती है)

 

हिरण्यक की सहायता और उद्धार

हिरण्यकश्च सर्वदा अनिष्टशङ्कया शतद्वारं विवरं कृत्वा निवसति।

हिरण्यक हमेशा आशंका में जीता था, इसलिए उसने सौ द्वारों वाला बिल बनाकर उसमें निवास किया।

ततो हिरण्यकः कपोतानाम् अवपातभयात् चकितस्तुष्णीं स्थितः।

कपोतों की गिरने की आशंका से वह डर गया और चुपचाप खड़ा हो गया।

चित्रग्रीव उवाच – "सखे हिरण्यक! किम अस्माभिः सह न सम्भाषसे?"

चित्रग्रीव बोला — “मित्र हिरण्यक! तुम हमसे बात क्यों नहीं कर रहे?”

ततो हिरण्यकस्तद्वचनं प्रत्यभिज्ञाय आनन्देन त्वरया बहिः निःसृत्य अब्रवीत – “आः! पुण्यवान् अस्मि, मम प्रियसुहृत् चित्रग्रीवः समायातः।”

हिरण्यक ने वह बात पहचानी और आनंदपूर्वक जल्दी बाहर निकलकर बोला — “आह! मैं पुण्यवान हूँ, मेरा प्रिय मित्र चित्रग्रीव आया है।”

पाशबद्धान् कपोतान् दृष्टवा सविस्मयं क्षणं स्थित्वा अवदत – “सखे! किमेतत?”

बंधे हुए कपोतों को देखकर वह आश्चर्यचकित होकर बोला — “मित्र! यह क्या हुआ?”

चित्रग्रीवोऽवदत – “सखे! एतद् अस्माकं विचारहीनतायाः फलम्।”

चित्रग्रीव ने कहा — “मित्र! यह हमारी विचारहीनता का परिणाम है।”

तत् श्रुत्वा हिरण्यकः चित्रग्रीवस्य बन्धनं छेतुं सत्वरम् उपसर्पति।

यह सुनकर हिरण्यक जल्दी से चित्रग्रीव के बंधन को काटने के लिए पास आता है।

तदा चित्रग्रीवोऽवदत – “मित्र! मा मा एवम्। पूर्वं मदाश्रितानाम् एतेषां पाशान् छिनतु, पश्चात् मम।”

तब चित्रग्रीव कहता है — “मित्र! रुको, पहले मेरे आश्रितों के बंधन काटो, बाद में मेरा।”

एतदाकर्ण्य हिरण्यकः प्रहृष्टमनाः पुलकितः सन् अब्रवीत – “साधु मित्र! साधु। अनेन आश्रितवात्सल्येन त्वं त्रैलोक्यस्यापि स्वामित्वं प्राप्तुं योग्योऽसि।”

यह सुनकर हिरण्यक प्रसन्न और रोमांचित होकर बोला — “अत्युत्तम मित्र! इस आश्रित प्रेम के कारण तुम तीनों लोकों के राजा बनने योग्य हो।”

ततो हिरण्यकः स्वमित्रैः सह सर्वेषां कपोतानां बन्धनानि छिनत्ति स्म।

फिर हिरण्यक अपने मित्रों के साथ सभी कपोतों के बंधन काट देता है।

सर्वे कपोताः पाशविमुक्ता: अभवन्।

सभी कपोते बंधन मुक्त हो गए।

सहर्षं पुनः उड्डीय आकाशमार्गेण गच्छन्तः सर्वे कपोताः राजानं चित्रग्रीवं प्रशंसन्ति – “भवतः नीतिशिक्षया नायकधर्मेण च वयं सर्वे सुरक्षिताः। धन्याः वयम्।”

सभी कपोते प्रसन्न होकर फिर उड़ते हुए चित्रग्रीव की प्रशंसा करने लगे — “आपकी नीति और नेतृत्व से हम सब सुरक्षित हुए, हम धन्य हैं।”

 

नीति शिक्षण और समापन

कथां श्रावयित्वा नायकः सर्वान् सम्बोधयति – “मित्राणि! आपद्ग्रस्ताः कपोताः बुद्धिबलेन संघटनसामर्थ्येन च आत्मसंरक्षणं कृतवन्तः।

कहानी सुनाकर नायक सबको संबोधित करता है — “मित्रों! संकट में पड़े कपोते बुद्धि और संगठन की शक्ति से अपनी रक्षा करने में सफल हुए।”

तर्हि किमर्थं वयं संघटिताः भूत्वा आत्मसंरक्षणं कर्तुं न शक्नुमः?”

तो हम सब संगठित होकर अपनी रक्षा क्यों नहीं कर सकते?”

नायकस्य प्रेरकवचनैः उत्साहिताः सर्वेऽपि भयं शोकं सन्देहं च विहाय सेतुनिर्माणकार्ये संलग्नाः जाताः।

नायक के प्रेरक शब्दों से उत्साहित होकर सबने भय, शोक और संदेह छोड़कर पुल निर्माण में लग गए।

भगीरथप्रयत्नैः सेतुनिर्माणं कृत्वा तैः स्वीयप्राणाः अन्येषां च प्राणाः संरक्षिताः।

भगीरथ जैसे प्रयासों से पुल बनाकर उन्होंने अपने और दूसरों के प्राणों की रक्षा की।

 

श्लोक 1

विपदि धैर्यमथाभ्युदये क्षमा, सदसि वाक्पटुता युधि विक्रमः।

यशसि चाभिरुचिर्व्यसनं श्रुतौ, प्रकृतिसिद्धमिदं हि महात्मनाम् ॥

पदच्छेद:

  • विपदि = विपत्ति में
  • धैर्यम् = धैर्य
  • अथ = और
  • अभ्युदये = समृद्धि में
  • क्षमा = क्षमा
  • सदसि = सभा में
  • वाक्पटुता = वाणी की प्रवीणता
  • युधि = युद्ध में
  • विक्रमः = पराक्रम
  • यशसि = यश में
  • अभिरुचिः = रुचि
  • व्यसनं = अध्ययन का प्रेम
  • श्रुतौ = शास्त्रों में
  • प्रकृति-सिद्धम् = स्वभाव से सिद्ध
  • इदम् = यह
  • हि = वास्तव में
  • महात्मनाम् = महान लोगों का

हिन्दी भावार्थ:

महान व्यक्तियों का यह स्वाभाविक स्वभाव होता है —

  • वे विपत्ति में धैर्य रखते हैं,
  • समृद्धि में क्षमाशील होते हैं,
  • सभा में वाकपटु होते हैं,
  • युद्ध में पराक्रमी होते हैं,
  • यश में अभिरुचि रखते हैं, और
  • शास्त्रों में अध्ययन का प्रेम रखते हैं। यह सब उनके स्वभाव की विशेषता है, ना कि अर्जित आदत।

 

प्रेरणा:

यह श्लोक हमें बताता है कि परिस्थितियों के अनुसार व्यवहार बदलना और श्रेष्ठ गुणों को अपनाना एक महापुरुष की पहचान है।

 

श्लोक 2

अल्पानामपि वस्तूनां संहतिः कार्यसाधिका।

तृणैर्गुणत्वमापन्नैर्बध्यन्ते मत्तदन्तिनः ॥

पदच्छेद:

  • अल्पानाम् अपि वस्तूनाम् = छोटे-छोटे वस्तुओं की भी
  • संहतिः = एकता
  • कार्यसाधिका = कार्य को सिद्ध करने वाली
  • तृणैः = तिनकों से
  • गुणत्वम् आपन्नैः = रस्सी रूप में बदले हुए
  • बध्यन्ते = बाँधे जाते हैं
  • मत्तदन्तिनः = मदोन्मत्त हाथी

हिन्दी भावार्थ:

छोटी वस्तुओं की भी एकता से बड़ा कार्य सिद्ध हो सकता है। जैसे घास के तिनकों से बनी रस्सी से भी मद में चूर हाथियों को बाँधा जा सकता है, वैसे ही समवेत प्रयास से असंभव कार्य भी संभव होते हैं।

 

प्रेरणा:

यह श्लोक एकता की शक्ति को दर्शाता है — चाहे संसाधन अल्प हों, यदि सभी साथ मिलकर कार्य करें तो बड़े से बड़ा लक्ष्य प्राप्त किया जा सकता है।

१. संगच्छध्वं संवदध्वम् _ सारांश

 

पाठ का सारांश -

·                                      विद्यार्थियों ने विद्यालय की फुटबॉल प्रतियोगिता में जीत प्राप्त की और आचार्य को यह सूचना दी।

चर्चा होती है कि विरोधी दल के खिलाड़ियों में सहयोग की भावना नहीं थी, जबकि विजयी दल में एकता थी।

आचार्य समझाते हैं कि विजय के लिए टीम भावना, सहयोग, और समर्पण आवश्यक है

इसी भावना को ऋग्वेद के संज्ञान सूक्त में दर्शाया गया है, जिसमें तीन प्रमुख वैदिक मंत्रों का उल्लेख है:

1.      "संगच्छध्वं संवदध्वम् सं वो मनांसि जानताम्"

सब मिलकर चलो, एक आवाज़ में बोलो, और एक जैसे विचार रखो।

2.      "समानो मन्त्रः समितिः समानी..."

सबका विचार, उद्देश्य और भावना एक जैसी होनी चाहिए।

3.      "समानी व आकूतिः समाना हृदयानि..."

सभी के संकल्प, भाव और हृदय एक जैसे होने चाहिए जिससे समाज में प्रेम और शांति बनी रहे।

 

भाग 1: प्रस्तावना और संवाद

  • छात्र अपने विद्यालय की फुटबॉल प्रतियोगिता में जीत की जानकारी आचार्य को देते हैं।
  • वे बताते हैं कि विजयी टीम में सामंजस्य और सहयोग था जबकि विपक्षी टीम में आपसी मनमुटाव था।
  • आचार्य इस अवसर पर वेद के संगठन-सूक्त” की चर्चा करते हैं, जो सामूहिक सफलता के सूत्र देता है।

 

भाग 2: वेद के तीन प्रमुख मंत्रों का भावार्थ

🕉 मंत्र 1: संगच्छध्वं संवदध्वं सं वो मनांसि जानताम्...

  • भावार्थ: हे मानवों! एक साथ चलो, एकसुर में बोलो, और एक-दूसरे के मन की बात समझो। जिस प्रकार सृष्टि के प्रारंभ में देवताओं ने एकता से यज्ञ को सफल बनाया, वैसे ही मनुष्य भी यदि एकता से कार्य करें तो समाज में समृद्धि आए।

मंत्र 2: समानो मन्त्रः समितिः समानी समानं मनः सह चित्तमेषाम्...

  • भावार्थ: सभी का चिंतन, उद्देश्य, और मन समान हो। यही मानसिक समरसता समाज को द्वेषमुक्त और सुखद बनाती है। वेद कहता है कि हम सभी एक भाव, एक मन्त्र और एक उद्देश्य से यज्ञ करें — यानी एकजुट होकर कार्य करें।

मंत्र 3: समानी व आकूतिः समाना हृदयानि वः...

  • भावार्थ: तुम्हारे संकल्प, भावनाएँ और हृदय एक समान हों ताकि तुम्हारा संगठन सशक्त और उत्तम बने। एकजुटता ही समृद्ध, स्वस्थ, और प्रसन्न जीवन का आधार है।

 

भाग 3: प्रेरणा और उद्देश्य

  • यह सूक्त छात्रों को प्रेरित करता है कि वे परिवार, समाज और राष्ट्र के हित में एकजुट होकर कार्य करें
  • एकता से ही ज्ञान, समृद्धि, स्वास्थ्य, और आत्म-संतोष प्राप्त होता है।

 

वैदिक मंत्र —

संगच्छध्वं संवदध्वम् सं वो मनांसि जानताम्।

देवा भागं यथा पूर्वे संजानाना उपासते ॥”

यह मंत्र केवल शब्दों की अभिव्यक्ति नहीं है, बल्कि एक जीवन-दृष्टि, एक सामाजिक आदर्श, और एक चेतनाशील जीवन की राह दिखाता है।

मन्त्र का पदच्छेद और अन्वय

पदच्छेदः संगच्छध्वम् संवदध्वम् सं वः मनांसि जानताम्। देवा भागं यथा पूर्वे संजानानाः उपासते।

अन्वयः हे मानवों! तुम सब संगच्छध्वम् (मिलकर चलो), संवदध्वम् (एकस्वर में बोलो), और तुम्हारे मन (मनांसि) एक-दूसरे को जानें। जैसे प्राचीन काल में देवता भाग लेकर एकता से उपासना करते थे।

 

भावार्थ का गहन विश्लेषण

1. संगच्छध्वम् – “मिलकर चलो”

गच्छध्वम्” = चलो; “सम्” उपसर्ग = मिलकर

यह केवल शारीरिक एकता नहीं, बल्कि मानसिक और उद्देश्य की एकता है। यह हमें अपने परिवार, समाज, संगठन में समुच्चय की भावना विकसित करने के लिए प्रेरित करता है।

2. संवदध्वम् – “एक स्वर में बोलो”

यह मंत्र समविचार और संवाद की आवश्यकता को दर्शाता है।

संवाद का अर्थ मात्र विचारों का आदान-प्रदान नहीं, बल्कि समवेत स्वर से एक उद्देश्य की ओर बढ़ना है।

यहाँ “संवाद” = सहमति + समझौता + श्रवण कौशल

3. सं वो मनांसि जानताम् – “तुम्हारे मन एक-दूसरे को जानें”

यह मानसिक समरसता की गहराई को प्रकट करता है।

सभी का मनोभाव एक-दूसरे को समझने योग्य हो; जिससे वैमनस्य समाप्त हो और मैत्री उत्पन्न हो।

4. देवा भागं यथा पूर्वे संजानाना उपासते – “जैसे पहले देवता भाग लेकर एकजुट हुए”

यहाँ "देवता" का प्रतीकात्मक अर्थ है — प्रकृति की शक्तियाँ या ब्रह्मांडीय ऊर्जा।

इन शक्तियों ने एक साथ, अपने-अपने कर्तव्यों को निभाते हुए, सृष्टि को संचालित किया।

इससे यह सीख मिलती है कि जब व्यक्ति अपने सामाजिक उत्तरदायित्वों को समरसता से निभाते हैं, तभी सृष्टि की प्रगति होती है।

 

व्यावहारिक दृष्टिकोण

  • यह मंत्र केवल वैदिक जीवन का नियम नहीं है, बल्कि आज के समय में भी टीमवर्क, नेतृत्व, सामूहिक निर्णय, और रचनात्मक सहयोग के लिए मार्गदर्शक है।
  • शिक्षण, प्रशासन, पारिवारिक जीवन, राजनीति, हर क्षेत्र में इसके भाव को अपनाना सफलता का मूलमंत्र बन सकता है।

 

 भावार्थ का गहन विश्लेषण

1. “समानो मन्त्रः” – समान चिन्तन और विचार

  • यहाँ "मन्त्रः" का अर्थ केवल वैदिक श्लोक नहीं, बल्कि संकल्प, चिन्तन, और दिशा भी है।
  • समाज के सभी वर्गों में विचारों की एकरूपता, लक्ष्य की स्पष्टता होनी चाहिए ताकि विकास और शांति सुनिश्चित हो सके।

2. “समितिः समानी” – लक्ष्य और उद्देश्य की समानता

  • "समिति" का तात्पर्य है सामूहिक संकल्प या एकत्रित ध्येय
  • जैसे कोई सभा या संगठन एक लक्ष्य को लेकर एकत्र होता है, वैसे ही जीवन की यात्रा में भी समान ध्येय आवश्यक है।

3. “समानं मनः सह चित्तमेषाम्” – मन और बुद्धि की सामरस्यता

  • "मनः" = भावना, "चित्तम्" = विचार या निर्णय शक्ति
  • भावनात्मक और बुद्धिपरक एकता से ही सच्चे समुदाय का निर्माण होता है।
  • यह अंश हमें सिखाता है कि केवल भावनाओं से नहीं, बल्कि ज्ञान, तर्क और समझदारी से भी एकता निर्मित होती है।

4. “समानं मन्त्रमभिमन्त्रये वः समानेन वो हविषा जुहोमि” – यज्ञ और प्रार्थना में एकता

  • यह पंक्ति दिव्य कर्मों की सामूहिकता को दर्शाती है।
  • "अभिमन्त्रये" = मंत्र को संस्कारपूर्वक प्रचारित करना
  • "हविषा जुहोमि" = यज्ञ की आहुति देना, अर्थात जीवन में समर्पण और पूजा भाव से कार्य करना।

 

यह मंत्र हमें क्या सिखाता है?

  • एकता विचारों में होनी चाहिए, न कि केवल शब्दों में
  • जीवन का यज्ञ तब सफल होता है जब सभी मिलकर विचार करें, एक ध्येय रखें, और भावनाओं व ज्ञान का सामंजस्य स्थापित करें।

 

भावार्थ का गहन विश्लेषण

1. “समानी व आकूतिः” – समान संकल्प और दृष्टिकोण

  • "आकूतिः" = संकल्प, अभिलाषा या इच्छाशक्ति
  • समाज की उन्नति तब ही संभव है जब सभी व्यक्तियों की सोच और लक्ष्य समान हों।
  • यहाँ यह स्पष्ट संदेश है कि विचारों की समानता समाज की नींव को मजबूत करती है।

2. “समाना हृदयानि वः” – हृदयों में समान भावनाएँ

  • यह केवल मानसिक स्तर की बात नहीं, बल्कि भावनात्मक सामरस्य की ओर इशारा करता है।
  • समभाव और करुणा जब हृदयों में निवास करती है, तो समाज में मतभेदों की जगह मेल-जोल होता है।

3. “समानमस्तु वो मनो यथा वः सुसहासति” – जैसे तुम अच्छा सहयोग करते हो, वैसे मन भी समान हो

  • सुसहासति” = सुंदर ढंग से सह-अस्तित्व या सहयोग
  • यह हिस्सा बताता है कि जैसे हम मिलकर अच्छा सहयोग करते हैं, उसी प्रकार हमारा मन भी एकरूप होना चाहिए।
  • मन की समानता से ही सार्थक संवाद, सहयोग, और प्रगति संभव है।

 

इस मंत्र से सीख

  • यह मंत्र हमें केवल विचारात्मक या भावनात्मक नहीं, बल्कि संपूर्ण सामूहिक जीवन की दिशा देता है।
  • जब सभी व्यक्ति समान संकल्प, समान भावनाएँ, और समान मन रखते हैं, तो संगठन, समाज, और राष्ट्र सभी स्तरों पर सशक्त एकता संभव होती है।

२. - अल्पानामपि वस्तूनां संहतिः कार्यसाधिका _ सारांश

  पाठ: अल्प वस्तुओं की एकता से कार्यसिद्धि प्रस्तावना: कुछ मित्र विद्यालय के ग्रीष्मावकाश में उत्तराखंड की देवभूमि के दर्शनों हेतु गए। व...