पाठ का सारांश -
· विद्यार्थियों
ने विद्यालय की फुटबॉल प्रतियोगिता में जीत प्राप्त की और आचार्य को यह सूचना दी।
चर्चा होती है कि विरोधी दल के
खिलाड़ियों में सहयोग की भावना नहीं थी, जबकि विजयी दल
में एकता थी।
आचार्य समझाते हैं कि विजय
के लिए टीम भावना, सहयोग, और
समर्पण आवश्यक है।
इसी भावना को ऋग्वेद के
संज्ञान सूक्त में दर्शाया गया है, जिसमें तीन
प्रमुख वैदिक मंत्रों का उल्लेख है:
1.
"संगच्छध्वं संवदध्वम्
सं वो मनांसि जानताम्"
➤ सब मिलकर चलो, एक आवाज़ में बोलो, और एक जैसे विचार रखो।
2.
"समानो मन्त्रः समितिः
समानी..."
➤ सबका विचार, उद्देश्य और भावना एक जैसी होनी चाहिए।
3.
"समानी व आकूतिः समाना
हृदयानि..."
➤ सभी के संकल्प, भाव और हृदय एक जैसे होने चाहिए जिससे समाज में प्रेम और शांति बनी रहे।
भाग 1: प्रस्तावना और संवाद
- छात्र अपने विद्यालय की फुटबॉल प्रतियोगिता
में जीत की जानकारी आचार्य को देते हैं।
- वे बताते हैं कि विजयी टीम में सामंजस्य
और सहयोग था जबकि विपक्षी टीम में आपसी मनमुटाव था।
- आचार्य इस अवसर पर वेद के “संगठन-सूक्त” की चर्चा करते हैं,
जो सामूहिक सफलता के सूत्र देता है।
भाग 2: वेद के तीन प्रमुख
मंत्रों का भावार्थ
🕉 मंत्र 1: संगच्छध्वं संवदध्वं सं वो मनांसि
जानताम्...
- भावार्थ:
हे मानवों! एक साथ चलो, एकसुर में बोलो,
और एक-दूसरे के मन की बात समझो। जिस प्रकार सृष्टि के प्रारंभ
में देवताओं ने एकता से यज्ञ को सफल बनाया, वैसे ही
मनुष्य भी यदि एकता से कार्य करें तो समाज में समृद्धि आए।
मंत्र 2: समानो
मन्त्रः समितिः समानी समानं मनः सह चित्तमेषाम्...
- भावार्थ:
सभी का चिंतन, उद्देश्य, और मन समान हो। यही मानसिक समरसता समाज को द्वेषमुक्त और सुखद बनाती
है। वेद कहता है कि हम सभी एक भाव, एक मन्त्र और एक
उद्देश्य से यज्ञ करें — यानी एकजुट होकर कार्य करें।
मंत्र 3: समानी व
आकूतिः समाना हृदयानि वः...
- भावार्थ:
तुम्हारे संकल्प, भावनाएँ और हृदय एक समान
हों ताकि तुम्हारा संगठन सशक्त और उत्तम बने। एकजुटता ही समृद्ध, स्वस्थ, और प्रसन्न जीवन का आधार है।
भाग 3: प्रेरणा
और उद्देश्य
- यह सूक्त छात्रों को प्रेरित करता है
कि वे परिवार, समाज और राष्ट्र के
हित में एकजुट होकर कार्य करें।
- एकता से ही ज्ञान,
समृद्धि, स्वास्थ्य, और आत्म-संतोष प्राप्त होता है।
वैदिक
मंत्र —
“संगच्छध्वं संवदध्वम् सं वो मनांसि जानताम्।
देवा
भागं यथा पूर्वे संजानाना उपासते ॥”
यह
मंत्र केवल शब्दों की अभिव्यक्ति नहीं है, बल्कि एक जीवन-दृष्टि,
एक सामाजिक आदर्श, और एक चेतनाशील
जीवन की राह दिखाता है।
मन्त्र का पदच्छेद और अन्वय
पदच्छेदः
संगच्छध्वम् संवदध्वम् सं वः मनांसि जानताम्। देवा भागं यथा पूर्वे संजानानाः
उपासते।
अन्वयः
हे मानवों! तुम सब संगच्छध्वम् (मिलकर चलो), संवदध्वम्
(एकस्वर में बोलो), और तुम्हारे मन (मनांसि) एक-दूसरे को
जानें। जैसे प्राचीन काल में देवता भाग लेकर एकता से उपासना करते थे।
भावार्थ का गहन विश्लेषण
1.
संगच्छध्वम् – “मिलकर चलो”
“गच्छध्वम्” =
चलो; “सम्” उपसर्ग = मिलकर
यह केवल शारीरिक एकता नहीं, बल्कि मानसिक और उद्देश्य की एकता है। यह हमें अपने परिवार, समाज, संगठन में समुच्चय की भावना विकसित करने के
लिए प्रेरित करता है।
2.
संवदध्वम् – “एक स्वर में बोलो”
यह मंत्र समविचार और संवाद की
आवश्यकता को दर्शाता है।
संवाद का अर्थ मात्र विचारों
का आदान-प्रदान नहीं, बल्कि समवेत स्वर से एक
उद्देश्य की ओर बढ़ना है।
यहाँ “संवाद” = सहमति + समझौता
+ श्रवण कौशल
3.
सं वो मनांसि जानताम् – “तुम्हारे मन एक-दूसरे को जानें”
यह मानसिक समरसता की गहराई को
प्रकट करता है।
सभी का मनोभाव एक-दूसरे
को समझने योग्य हो; जिससे वैमनस्य समाप्त हो और
मैत्री उत्पन्न हो।
4.
देवा भागं यथा पूर्वे संजानाना उपासते – “जैसे पहले देवता भाग लेकर
एकजुट हुए”
यहाँ "देवता" का
प्रतीकात्मक अर्थ है — प्रकृति की शक्तियाँ या ब्रह्मांडीय ऊर्जा।
इन शक्तियों ने एक साथ, अपने-अपने कर्तव्यों को निभाते हुए, सृष्टि को
संचालित किया।
इससे यह सीख मिलती है कि जब
व्यक्ति अपने सामाजिक उत्तरदायित्वों को समरसता से निभाते हैं, तभी सृष्टि की प्रगति होती है।
व्यावहारिक दृष्टिकोण
- यह मंत्र केवल वैदिक जीवन का नियम
नहीं है, बल्कि आज के समय में भी टीमवर्क,
नेतृत्व, सामूहिक निर्णय,
और रचनात्मक सहयोग के लिए मार्गदर्शक है।
- शिक्षण, प्रशासन,
पारिवारिक जीवन, राजनीति, हर क्षेत्र में इसके भाव को अपनाना सफलता का मूलमंत्र बन सकता है।
1. “समानो मन्त्रः” – समान चिन्तन और विचार
- यहाँ "मन्त्रः" का अर्थ
केवल वैदिक श्लोक नहीं, बल्कि संकल्प,
चिन्तन, और दिशा भी है।
- समाज के सभी वर्गों में विचारों की
एकरूपता, लक्ष्य की स्पष्टता होनी चाहिए ताकि विकास
और शांति सुनिश्चित हो सके।
2. “समितिः समानी” – लक्ष्य और उद्देश्य की समानता
- "समिति" का
तात्पर्य है सामूहिक संकल्प या एकत्रित ध्येय।
- जैसे कोई सभा या संगठन एक लक्ष्य को
लेकर एकत्र होता है, वैसे ही जीवन की यात्रा
में भी समान ध्येय आवश्यक है।
3. “समानं मनः सह चित्तमेषाम्” – मन और बुद्धि की सामरस्यता
- "मनः" = भावना,
"चित्तम्" = विचार या निर्णय शक्ति
- भावनात्मक और बुद्धिपरक एकता से ही
सच्चे समुदाय का निर्माण होता है।
- यह अंश हमें सिखाता है कि केवल
भावनाओं से नहीं, बल्कि ज्ञान,
तर्क और समझदारी से भी एकता निर्मित
होती है।
4. “समानं मन्त्रमभिमन्त्रये वः समानेन वो हविषा जुहोमि” – यज्ञ और प्रार्थना
में एकता
- यह पंक्ति दिव्य कर्मों की
सामूहिकता को दर्शाती है।
- "अभिमन्त्रये" =
मंत्र को संस्कारपूर्वक प्रचारित करना
- "हविषा जुहोमि" =
यज्ञ की आहुति देना, अर्थात जीवन में समर्पण और पूजा
भाव से कार्य करना।
यह मंत्र हमें क्या सिखाता है?
- एकता विचारों में होनी
चाहिए, न कि केवल शब्दों में।
- जीवन का यज्ञ तब सफल होता है जब सभी
मिलकर विचार करें, एक ध्येय रखें, और भावनाओं व ज्ञान का सामंजस्य स्थापित करें।
भावार्थ का गहन विश्लेषण
1. “समानी व आकूतिः” – समान संकल्प और दृष्टिकोण
- "आकूतिः" = संकल्प,
अभिलाषा या इच्छाशक्ति
- समाज की उन्नति तब ही संभव है जब सभी
व्यक्तियों की सोच और लक्ष्य समान हों।
- यहाँ यह स्पष्ट संदेश है कि विचारों
की समानता समाज की नींव को मजबूत करती है।
2. “समाना हृदयानि वः” – हृदयों में समान भावनाएँ
- यह केवल मानसिक स्तर की बात नहीं,
बल्कि भावनात्मक सामरस्य की ओर इशारा करता है।
- समभाव और करुणा जब हृदयों में निवास
करती है, तो समाज में मतभेदों की जगह मेल-जोल
होता है।
3. “समानमस्तु वो मनो यथा वः सुसहासति” – जैसे तुम अच्छा सहयोग करते हो,
वैसे मन भी समान हो
- “सुसहासति” = सुंदर ढंग से
सह-अस्तित्व या सहयोग
- यह हिस्सा बताता है कि जैसे हम मिलकर
अच्छा सहयोग करते हैं, उसी प्रकार हमारा मन भी
एकरूप होना चाहिए।
- मन की समानता से ही सार्थक संवाद,
सहयोग, और प्रगति संभव है।
इस मंत्र से सीख
- यह मंत्र हमें केवल विचारात्मक या
भावनात्मक नहीं, बल्कि संपूर्ण सामूहिक
जीवन की दिशा देता है।
- जब सभी व्यक्ति समान संकल्प,
समान भावनाएँ, और समान मन रखते हैं,
तो संगठन, समाज, और
राष्ट्र सभी स्तरों पर सशक्त एकता संभव होती है।
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