समास

 

समास - समसनं समासः
समास का शाब्दिक अर्थ होता है-संक्षेप। दो या दो से अधिक शब्दों के मिलने से जो तीसरा नया और संक्षिप्त रूप बनता है वह समास कहलाता है। समास के मुख्यतः चार भेद हैं-

1.    अव्ययीभाव

2.    तत्पुरुष

3.    बहुव्रीहि

4.    द्वन्द्व

 

1. अव्ययीभाव- इस समास में पहला पद अव्यय होता है और वही प्रधान होता है और समस्तपद अव्यय बन जाता है।
यथा-निर्मक्षिकम् मक्षिकाणाम् अभाव:

यहाँ प्रथमपद ‘निर्’ है और द्वितीयपद मक्षिकम् है। यहाँ मक्षिका की प्रधानता न होकर मक्षिका का अभाव प्रधान है, अतः यहाँ अव्ययीभाव समास है। कुछ अन्य उदाहरण देखें-

·        उपग्रामम् – ग्रामस्य सपीपे – (समीपता की प्रधानता)

·        निर्जनम् – जनानाम् अभाव: – (अभाव की प्रधानता)

·        अनुरथम् – रथस्य पश्चात् – (पश्चात् की प्रधानता)

·        प्रतिगृहम् – गृहं गृहं प्रतिः – (प्रत्येक की प्रधानता)

·        यथाशक्ति – शक्तिम् अनतिक्रम्य – (सीमा की प्रधानता)

·        सचक्रम् – सक्रेण सहितम्: – (सहित की प्रधानता)

2. तत्पुरुष- ‘प्रायेण उत्तरपदार्थप्रधानः तत्पुरुषः’ इस समास में प्राय: उत्तरपद की प्रधानता होती है और पूर्वपद उत्तरपद के विशेषण का कार्य करता है। समस्तपद में पूर्वपद की विभक्ति का लोप हो जाता है।
यथा- राजपुरुषः अर्थात् राजा का पुरुष। यहाँ राजा की प्रधानता न होकर पुरुष की प्रधानता है, और राजा शब्द पुरुष के विशेषण का कार्य करता है।

·        ग्रामगतः – ग्राम गतः।

·        शरणागात – शरणम् आगतः।

·        देशभक्तः – देशस्य भक्तः।

·        सिंहभीतः – सिंहात् भीतः।

·        भयापन्नः – भयम् आपन्नः।

·        हरित्रातः – हरिणा त्रातः।

तत्पुरुष समास के दो भेद हैं-कर्मधारय और द्विगु।

1. कर्मधारय- इस समास में एक पद विशेष्य तथा दूसरा पद पहले पद का विशेषण होता है। विशेषण-विशेष्य भाव के अतिरिक्त उपमान-उपमेय भाव भी कर्मधारय समास का लक्षण है।
यथा-

·        पीताम्बरम् – पीतं च तत् अम्बरम्।

·        महापुरुषः – महान् च असौ पुरुषः।

·        कज्जलमलिनम् – कज्जलम् इव मलिनम्।

·        नीलकमलम् – नीलं च तत् कमलम्।

·        मीननयनम् – मीन इव नयनम्।

·        मुखकमलम् – कमलम् इव मुखम्।

2. द्विगु- ‘संख्यापूर्वी द्विगुः’
इस समास में पहला पद संख्यावाची होता है और समाहार (एकत्रीकरण या समूह) अर्थ की प्रधानता होती है।
यथा- त्रिभुजम्-त्रयाणां भुजानां समाहारः।
इसमें पूर्ववद ‘त्रि’ संख्यावाची है।

·        पंचपात्रम् – पंचाना पात्राणां समाहारः।

·        पंचवटी – पंचानां वटानां समाहारः।

·        सप्तर्षिः – सप्तानां ऋषीणां समाहारः।

·        चतुर्युगम् – चतुर्णा युगानां समाहारः।

3. बहुब्रीहि- ‘अन्यपदप्रधानः बहुबीहिः’
इस समास में पूर्व तथा उत्तर पदों की प्रधानता न होकर किसी अन्य पद की प्रधानता होती है।
यथा-

पीताम्बरः – पीतम् अम्बरम् यस्य सः (विष्णुः)। यहाँ न तो पीतम् शब्द की प्रधानता है और न अम्बरम् शब्द की अपितु पीताम्बरधारी किसी अन्य व्यक्ति (विष्णु) की प्रधानता है।

·        नीलकण्ठः – नीलः कण्ठः यस्य सः (शिवः)।

·        दशाननः – दश आननानि यस्य सः (रावण:)।

·        अनेककोटिसारः – अनेककोटिः सारः (धनेम्) यस्य सः।

·        विगलितसमृद्धिम् – विगलिता समृद्धिः यस्य तम् (पुरुषम्)।

·        प्रक्षालितपादम् – प्रक्षालितौ पादौ यस्य तम् (जनम्)।

4. द्वन्द्व- ‘उभयपदार्थप्रधान: द्वन्द्वः’
इस समास में पूर्वपद और उत्तरपद दोनों की समान रूप से प्रधानता होती है। पदों के बीच में ‘च’ का प्रयोग विग्रह में होता है।
यथा-

·        रामलक्ष्मणौ – रामश्च लक्ष्मणश्च।

·        पतरौ – माता च पिता च।

·        धर्मार्थकाममोक्षाः – धर्मश्च, अर्थश्च, कामश्च, मोक्षश्च।

·        वसन्तग्रीष्मशिशिराः – वसन्तश्च ग्रीष्मश्च शिशिरश्च।

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